एक फूल की चाह - Navodayababu

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Transcript एक फूल की चाह - Navodayababu

महामारी के रूप
एक फूल की चाह
सियारामशरण
गप्ु त
पाठ प्रवेश
‘ एक फूल की चाह ’ छुआछूत की िमस्या िे िंबंधित कववता है । महामारी के दौरान
एक अछूत बासलका उिकी चपेट में आ जाती है । वह अपने जीवन की अंततम िााँिे ले
रही है । वह अपने माता- वपता िे कहती है कक वे उिे दे वी के प्रिाद का एक फूल लाकर
दें । वपता अिमंजि में है कक वह मंददर में कैिे जाए। मंददर के पुजारी उिे अछूत
िमझते हैं और मंददर में प्रवेश के योग्य नहीं िमझते। कफर भी बच्ची का वपता अपनी
बच्ची की अंततम इच्छा पूरी करने के सलए मंददर में जाता है । वह दीप और पुष्प अवपित
करता है और फूल लेकर लौटने लगता है । बच्ची के पाि जने की जल्दी में वह पुजारी
िे प्रिाद लेना भूल जाता है । इििे लोग उिे पहचान जाते हैं। वे उि पर आरोप लगाते
हैं कक उिने वर्षों िे बनाई हुई मंददर की पववत्रता नष्ट कर दी। वह कहता है कक उनकी
दे वी की मदहमा के िामने उनका कलुर्ष कुछ भी नहीं है । परं तु मंददर के पुजारी तथा
अन्य लोग उिे थप्पड़-मुक्कों िे पीट-पीटकर बाहर कर दे ते हैं। इिी मार-पीट में
दे वीक ाा फूल भी उिके हाथों िे छूत जाता है । भक्तजन उिे न्यायालय ले जाते हैं।
न्यायालय उिे िात ददन की िज़ा िुनाता है । िात ददन के बाद वह बाहर आता है , तब
उिे अपनी बेटी की ज़गह उिकी राख समलती है ।
इि प्रकार वह बेचारा अछूत होने के कारण अपनी मरणािन्न बेटी की
अंततम इच्छा पूरी नहीं कर पाता। इि मासमिक प्रिंग को उठाकर कवव पाठकों को यह
कहना चाहता है कक छुआछूत की कुप्रथा मानव-जातत पर कलंक है । यह मानवता के
प्रतत अपराि है ।
उद्वेसलत कर अश्रु – रासशयााँ ,
हृदय – धचताएाँ ििकाकर ,
महा महामारी प्रचंड हो
फैल रही थी इिर-उिर।
क्षीण – कंठ मत
ृ वत्िाओं का
करुण रुदन दद
ु ाांत तनतांत ,
भरे हुए था तनज कृश रव में
हाहाकार अपार अशांत।
कवव महामारी की भयंकरता का धचत्रण करता हुआ कहता है कक –
चारों ओर एक भयंकर महामारी फैल गई थी। उिके कारण पीडडत
लोगों की आाँखों में आाँिओ
ु ं की झडड़यााँ उमड़ आई थीं। उनके हृदय
धचताओं की भााँतत ििक उठे थे। िब लोग दख
ु के मारे बेचैन थे।
अपने बच्चों को मॄत दे खकर माताओं के कंठ िे अत्यंत दब
ि स्वर में
ु ल
करुण रुदन तनकल रहा था। वातावरण बहुत हृदय ववदारक था। िब
ओर अत्यधिक व्याकुल कर दे ने वाला हाहाकार मचा हुआ था।
माताएाँ दब
ि स्वर में रुदन मचा रही थीं।
ु ल
बहुत रोकता था िुखखया को ,
‘ न जा खेलने को बाहर ’ ,
नहीं खेलना रुकता उिका
नहीं ठहरती वह पल भर ।
मेरा हृदय कााँप उठता था ,
बाहर गई तनहार उिे ;
यही मनाता था कक बचा लाँ ू
ककिी भााँतत इि बार उिे।
िुखखया का वपता कहता है – मैं अपनी बेटी िुखखया को बाहर जाकर
खेलने िे मना करता था। मैं बार-बार कहता था – ‘ बेटी , बाहर
खेलने मत जा।’ परं तु वह बहुत चंचल और हठीली थी। उिका
खेलना नहीं रुकता था। वह पल भर के सलए भी घर में नहीं रुकती
थी। मैं उिकी इि चंचलता को दे खकर भयभीत हो उठता था। मेरा
ददल कााँप उठता था। मैं मन में हमेशा यही कामना करता था कक
ककिी तरह अपनी बेटी िखु खया को महामारी की चपेट में आने िे
बचा लाँ ।ू
भीतर जो डर था तछपाए ,
हाय! वही बाहर आया।
एक ददवि िुखखया के तनु को
ताप – तप्त उिने पाया।
ज्वर में ववह्वल हो बोली वह ,
क्या जानाँू ककि दर िे दर ,
मझ
ु को दे वी के प्रिाद का
एक फूल ही दो लाकर।
िखु खया का वपता कहता है - अफ़िोि ! मेरे मन में
यही डर था कक कहीं मेरी बबदटया िखु खया को यह
महामारी न लग जाए। मई इिीिे डर रहा था। वह डर
आखखकार िच हो गया। एक ददन मैंने दे खा कक
िखु खया का शरीर बीमीरी के कारण जल रहा है । वह
बुखार िे पीडड़त होकर और न जाने ककि अनजाने
भय िे भयभीत होकर मझ
ु िे कहने लगी – वपताजी !
मझ
ु े मााँ भगवती के मंददर के प्रिाद का एक फूल
लाकर दो।
क्रमश: कंठ क्षीण हो आया ,
सशधथल हुए अवयव िारे ,
बैठा था नव-नव उपाय की
धचंता में मैं मनमारे ।
जान िका न प्रभात िजग िे
हुई अलि कब दोपहरी ,
स्वणि – घनों में कब रवव डूबा ,
कब आई िंध्या गहरी।
िखु खया का वपता महामारी िे ग्रस्त िखु खया
की बीमारी बढ़ने का वणिन करता हुआ कहता
कक िीरे -िीरे महामारी का प्रभाव बढ़ने लगा।
िखु खया का गला घट
ु ने लगा। आवाज़ मंद
होने लगी। शरीर के िारे अंग ढीले पड़ने लगे।
मैं धचंता में डूबा हुआ तनराश मन िे उिे ठीक
करने के नए-नए उपाय िोचने लगा। इि
धचंता में मैं इतना डूब गया कक मझ
ु े पता ही
नहीं चल िका कक कब प्रात:काल की हलचल
िमाप्त हुई और आलस्य भरी दोपहरी आ
गई। कब िरू ज िन
ु हरे बादलों में डूब गया
और कब गहरी िााँझ हो गई।
िभी ओर ददखलाई दी बि ,
अंिकार की ही छाया ,
छोटी – िी बच्ची को ग्रिने
ककतना बड़ा ततसमर आया !
ऊपर ववस्तत
ृ महाकाश में
जलते – िे अंगारों िे,
झुलिी – िी जाती थी आाँखें
जगमग जगते तारों िे।
िुखखया का वपता कहता है कक िुखखया की बीमारी के कारण
मेरे मन में ऐिी घोर तनराशा छा गई कक मुझे चारों ओर अंिेरे
की ही छाया ददखाई दे ने लगी
मुझे लगा कक मेरी नन्हीं – िी बेटी को तनगलने के सलए
इतना बड़ा अाँिेरा चला आ रहा है । जजि प्रकार खुले आकाश
में जलते हुए अंगारों के िमान तारे जगमगाते रहते हैं , उिी
भााँतत िुखखया की आाँखें ज्वर के कारण जली जाती थीं। वह
बेहेद बीमीर थी।
दे ख रहा था – जो िुजस्थर हो
नहीं बैठती थी क्षण - भर ,
हाय ! वही चुपचाप पड़ी थी
अटल शांतत – िी िारण कर।
िन
ु ना वही चाहता था मैं
उिे स्वयं ही उकिाकर –
मझ
ु को दे वी के प्रिाद का
एक फूल ही दो लाकर !
जैिे शैल - सशखर के ऊपर
मंददर था ववस्तीणि ववशाल ;
स्वणि – कलश िरसिज ववहसित थे
पाकर िमुददत रवव-कर-जाल।
दीप-िूप िे आमोददत था।
मंददर का आाँगन िारा ;
गाँज
ू रही थी भीतर-बाहर
मुखररत उत्िव की िारा।
ऊाँचे पवित की चोटी के ऊपर एक ववस्तॄत और ववशाल
मंददर खड़ा था। उिका कलश स्वणि िे बना था। उि पर
िूरज की ककरणें िुशोसभत हो रही थीं। ककरणों िे
जगमगाता हुआ कलश ऐिा खखला-खखला प्रतीत होता था
जैिे कक रजममयों को पाकर कमल का फूल खखल उठा हो।
मंददर का िारा आाँगन दीपों की रोशनी और िूप की िुगंि
िे महक रहा था। मंददर के अंदर और बाहर – िब ओर
उत्िव जैिा उल्लािमय वातावरण था।
भक्त-वंद
ृ मद
ृ ु - मिुर कंठ िे
गाते थे िभजक्त मद
ु – मय , ‘पततत–ताररणी पाप–हाररणी ,
माता ,तेरी जय–जय – जय ’ –
मेरे मख
ु िे भी तनकला ,
बबना बढ़े ही मैं आगे को
जाने ककि बल िे दढकला !
मंददर में भक्तों की टोली बड़ी मिुर और कोमल
आवाज़ में आनंद और भजक्त िे भरा हुआ यह
जयगान गा रही थी – ‘ हे पतततों का उद्िार करने
वाली दे वी ! हे पापों को नष्ट करने वाली दे वी ! हम
तेरी जय-जयकार करते हैं। ’ िखु खया के वपता के
माँह
ु िे भी जयगान तनकल पड़ा। उिने दोहराया –
‘ हे पतततों का उद्िार करने वाली दे वी , तम्
ु हारी
जय हो। ’ यह कहने के िाथ ही न जाने उिमें
कौन-िी शजक्त आ गई , जजिने उिे ठे लकर
पुजारी के िामने खड़ा कर ददया। वह अनायाि ही
पूजा – स्थल के िामने पहुाँच गया।
मेरे दीप – फूल लेकर वे
अंबा को अवपित करके
ददया पुजारी ने प्रिाद जब
आगे को अंजसल भर के ,
भूल गया उिका लेना झट ,
परम लाभ –िा पाकर मैं।
िोचा – बेटी को मााँ के ये
पुण्य – पुष्प दाँ ू जाकर मैं।
सिंह पौर तक भी आाँगन िे
नहीं पहुाँचने मैं पाया ,
िहिा यह िुन पड़ा कक – “ कैिे
यह अछूत भीतर आया ?
पकड़ो , दे खो भाग न पावे ,
बना िूति यह है कैिा ;
िाफ़ – स्वच्छ पररिान ककए है ,
भले मानुर्षों के जैिा !
पापी ने मंददर में घुिकर
ककया अनथि बड़ा भारी ;
कलुवर्षत कर दी है मंददर की
धचरकासलक शुधचता िारी।”
िुखखया का वपता दे वी के मंददर में फूल लेने के सलए जाता है
तो पहचान सलया जाता है । तब वह अपनी आपबीती िुनाते
हुए कहता है – मैं पूजा करके मंददर के मुख्य द्वार तक भी न
पहुाँचा था कक अचानक मुझे यह स्वर िुनाई पड़ा – ‘ यह
अछूत मंददर के अंदर कैिे आया ? इिे पकड़ो। िाविान
रहो। कहीं यह दष्ु ट भाग न जाए। यह कैिा ठग है ! ऊपर िे
िाफ़-िुथरे कपड़े पहनकर भले आदसमयों जैिा रूप बनाए
हुए है । परं तु है महापापी और नीच। इि पारी ने मंददर में
घुिकर बहुत बड़ा पाप कर ददया है ।इिने इतने लंबे िमय िे
बनाई गई मंददर की पववत्रता को नष्ट कर ददया है । इिके
प्रवेश िे मंददर अपववत्र हो गया है ।
ऐं , क्या मेरा कलर्ष
ु बड़ा है
दे वी की गररमा िे भी ;
ककिी बात में हूाँ मैं आगे
माता की मदहमा के भी ?
मााँ के भक्त हुए तुम कैिे ,
करके यह ववचार खोटा ?
मााँ के िम्मख
ु ही मााँ का
तम
ु
गौरव करते हो छोटा !
िुखखया का वपता मंददर में पूजा का फूल लेने गए तो भक्तों ने
उन्हें अछूत कहकर पकड़ सलया । तब िुखखया के वपता उन
भक्तों िे बोले – यह तुम क्या कहते हो ! मेरे मंददर में आने िे
दे वी का मंददर कैिे अपववत्र हो गया ? क्या मेरे पाप तुम्हारे दे वी
की मदहमा िे भी बढ़कर हैं? क्या मेरे मैल में तुम्हारी दे वी के
गौरव को नष्ट करने की शजक्त है ? क्या मैं ककिी बात में तुम्हारे
दे वी िे भी बढ़कर हूाँ ? नहीं , यह िंभव नहीं है । अरे दष्ु ट ! तुम
ऐिा तुच्छ ववचार करके भी अपने आप को मााँ के भक्त कहते
हो।तुम्हें ल्ज्जा आनी चादहए। तुम मााँ की मूतति के िामने ही मााँ
के गौरव को नष्ट कर रहे हो। मााँ कभी छूत-अछूत नहीं मानती।
वह तो िबकी मााँ है ।
कुछ न िुना भक्तों ने , झट
िे
मुझे घेरकर पकड़ सलया ;
मार-मारकर मुक्के – घि
ूाँ े
िम – िे नीचे धगरा ददया !
मेरे हाथों िे प्रिाद भी
बबखर गया हा ! िबका िब ,
हाय ! अभागी बेटी तुझ तक
कैिे पहुाँच िके यह अब।
िुखखया का वपता अपनी बेटी की अंततम इच्छा पूरी करने के
सलए मंददर में पूजा का फूल लेने पहुाँचा तो भक्तों ने उिे अछूत
कहकर पकड़ सलया। उिने उनिे प्रमन पूछा कक क्या उिका
कलुर्ष दे वी मााँ की मदहमा िे भी बढ़कर है । इिके बाद िुखखया
का वपता अपनी आपबीती िुनते हुए कहता है – दे वी के उन
भक्तों ने मेरी बातों पर ध्यान नहीं ददया। उन्होंने तुरंत मुझे
चारों ओर िे घेरकर पकड़ सलया। कफर उन्होंने मुझे मुक्के – घि
ूाँ े
मार – मारकर नीचे धगरा ददया। उि मारपीट में मेरे हाथों िे
दे वी मााँ का प्रिाद भी बबखर गया। मैं अपनी बेटी को याद करने
लगा – हाय ! अभागी बेटी ! दे वी का यह प्रिाद तुझ तक कैिे
पहुाँचाऊाँ। तू ककतनी अभागी है ।
न्यायालय ले गए मुझे वे ,
िात ददवि का दं द – वविान
मुझको हुआ ; हुआ था मुझिे
दे वी का महान अपमान !
मैंने स्वीकृत ककया दं ड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह ;
उि अिीम असभयोग दोर्ष का
क्या उत्तर दे ता , क्या कह ?
िात रोज़ ही रहा जेल में
या कक वहााँ िददयााँ बीतीं ,
अववश्रांत बरिा करके भी
आाँखें ततनक नहीं रीतीं।
दं ड भोगकर जब मैं छूटा ,
पैर न उठते थे घर को ;
पीछे ठे ल रहा था कोई
भय – जजिर तनु पंजर को।
पहले की – िी लेने मझ
ु को
नहीं दौड़कर आई वह ;
उलझी हुई खेल में ही हा !
अबकी दी न ददखाई वह।
उिे दे खने मरघट को ही
गया दौड़ता हुआ वहााँ ,
मेरे पररधचत बंिु प्रथम ही
फाँू क चक
ु े थे उिे जहााँ।
बुझी पड़ी थी धचता वहााँ पर
छाती ििक उठी मेरी ,
हाय ! फूल – िी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढे री !
अंततम बार गोद में बेटी ,
तुझको ले न िका मैं हा !
एक फूल मााँ का प्रिाद भी
तुझको दे न िका मैं हा !
प्रस्ततु त
आर.बाबूराज जैन
स्नातक सशक्षक
ज.न.वव.पद
ु च्ु चेरी
िन्यवाद !